Sunday, 29 June 2014

हो गए हम बंजारे

हो गए सब बंजारे 
नींद के मारे है सारे 
हर डगर हारे है सारे 
 बीज स्वप्नों के पले जो 
हो गए सब बंजारे 
दो कदम के हमसफ़र हम 
तब ना सोचे थे मगर अब 
छुट गए है सब सहारे
हो गए हम बंजारे 
थी मसर्रत हर ज़रर में 
खार भी बेकार थे 
छिप गए सारे नज़ारे 
हो गए सब बंजारे 
हो गए..............
@ प्रदीप

Sunday, 22 June 2014

ऐसा भी है



ईमान     और    मुहब्बत  ही    नहीं     तुझमें,
वलवला-ए-ज़ंग  है  जो,  वो  जलजला  भी  है।

यहाँ  मिला किसको , जो  केवल  भला  ही  है,
 मत  कर यकीं इस कदर, ये दुनिया बला भी है।

तू    ही     कश्ती-भँवर-साहिल-नाख़ुदा     तेरा,
है  यहाँ   कौन,  जिसका   वो   अल्लाह   भी   है?
 -प्रदीप

Friday, 6 June 2014

अच्छा लगा

कभी कविता में अतीत से टकराना 
कभी लेखो की शफ़ों में डूब जाना 
रहना जहाँ में वंचित अपने प्राप्य से
और जुड़ जाना माओ लाल-सलाम से

अलगाव का यह भाव अच्छा लगा 
आत्म-रक्षा का यह दाँव अच्छा लगा 

उपज-हताशा ह्रास-संस्कृति की 
हथियार, लालच, उत्पीड़न की 
यह न्याय औ समता का आधार हो न हो 
कारण अबला के दोहन का बारम्बार हो न हो 

ग्रसित मनुजता का यह नाव अच्छा लगा 
प्रगति का यह अनुभाव अच्छा लगा 

तम वन में दरख्तो पर बुद्ध औ गांधी
आत्म-हत्या के लिये है डाल ली फाँसी 
अनहद नाद गूँजती है हवा की गूँज से 
कह रहा माओ सत्ता आती है बन्दूक से  

ज्ञान का यह प्रतिबिम्ब अच्छा लगा 
धरा पे शर्म का यह धुंद अच्छा लगा 

पैसा-पॉवर-फ्री सेक्स का प्रस्ताव अच्छा लगा 
या तथा-कथित राष्ट्र-रक्षा का दांव अच्छा लगा 

वर्तमान को अतीत का आधार अच्छा लगा 
भविष्य को आज का यह द्वार अच्छा लगा 

-प्रदीप 

तुमसे

तुम बढ़ो,
कदम-दर-कदम इतना 

कि हर साज़ हो तुमसे 
 साज़ का आग़ाज़ भी तुमसे 

  हर गीत हो तुमसे, और
गीतों के अल्फ़ाज़ भी तुमसे
मेरी हर जीत हो तुमसे, और
जीत का अंजाम भी तुमसे 

हर महफिल भी तुमसे, और

 महफ़िल-ए-खास भी तुमसे 

नियति के पास हो जितना  
जो हो किसी का सपना 
तुम बढ़ो,
कदम-दर-कदम इतना। 


हर जज्बात में जो शामिल हो 
हर ख़यालात के जो क़ाबिल हो 
वो तुम हो, वो तुम हो ,वो तुम हो।

अब, जब तुम हो सामने

तो कह दूँ हर वलवला तुमसे 
ये हाल है तुमसे 
ये नयी-नयी फितरत भी तुमसे 
मेरी ग़ज़ल भी तुमसे 
और कविता भी तुमसे 
साज़ भी, आवाज़ भी 
और अंदाज़ भी तुमसे 
मेरे रिश्ते नाते भी तुमसे 
मेरी मंज़िल के रास्ते भी तुमसे 

जब मेरा सबकुछ है तुमसे 
तो क्यूँ नहीं तुम मुझसे।


मैंने सोचा-नदी की धार है तुमसे 
मैंने माना- फ़िज़ा की बहार है तुमसे 
मैंने देखा- चाँदनी बार-बार है तुमसे 
मैंने चाहा- मेरा संसार हो तुमसे 
मैंने कहा जो बार-बार है तुमसे 
के सबकुछ है तुमसे 
तो फिर
क्यूँ  नही तुम मुझसे