Saturday, 5 October 2013

तू है ही प्रदीप


इक बार मेरे अज़ीज़ दोस्त ने पूछा -
क्या हाल-ए-हुजुर  है?

मैं बोल पड़ा अफ़सोस मुझे
हाल-ए-दिल बड़ा मजबूर है. 
यूँ तो उसकी खातिर मुझमें 
प्यार भरा भरपूर है। 
फिर भी न जाने क्यूँ  …
…. अब भी मुझसे दूर है।

दोस्त कुटिल हो बोल पड़ा-
मेरे दोस्त!
कोई चाँद कहीं तो जरूर है ,
इतना उसे तभी तो गुरूर है,
खैर छोड़ तू उसका ख़याल 
क्यूँ उसमें मशगूल है।

अरे!…. 

…ना तो तुम बिन कोई चाँद है ,
ना ही तुम बिन कोई मगरूर है ,
तू है ही 'प्रदीप'
इसमें उनका क्या कुसूर है। 
-प्रदीप

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