तू है ही प्रदीप
इक बार मेरे अज़ीज़ दोस्त ने पूछा -
क्या हाल-ए-हुजुर है?
मैं बोल पड़ा अफ़सोस मुझे
हाल-ए-दिल बड़ा मजबूर है.
यूँ तो उसकी खातिर मुझमें
प्यार भरा भरपूर है।
फिर भी न जाने क्यूँ …
…. अब भी मुझसे दूर है।
दोस्त कुटिल हो बोल पड़ा-
मेरे दोस्त!
कोई चाँद कहीं तो जरूर है ,
इतना उसे तभी तो गुरूर है,
खैर छोड़ तू उसका ख़याल
क्यूँ उसमें मशगूल है।
अरे!….
…ना तो तुम बिन कोई चाँद है ,
ना ही तुम बिन कोई मगरूर है ,
तू है ही 'प्रदीप'
इसमें उनका क्या कुसूर है।
-प्रदीप।
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