इन अमानुष से मानुष की ,
है इक और ,
जो है जवानी से अस्मत के
बगावत की।
निर्भया-दामिनी-आरुषी से सुन लो ,
है दौर-ए-जहाँ अब
अदावत की।
अदावत कि वफ़ा के यूँ
सिलसिलें न रख ,
बेगैरत क़ैश
औ' आशिक़ों के
काफिले न रख।
अदावत कि इंतेहा
सबके वजूद का है।
क्या ख़ाका है बनाया
'खुदा के खुद-फुगुं का है'।
बेटियाँ तक नहीं महफूज़
हैं माँ-बाप से ,
आने वाला भी,
डर रहा है आज से।
अतीत ने कैसा
ये सितम बरपा है ?
मौत सी आवाज़
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