Tuesday, 15 July 2014

थे कभी हम-बिन



बेकद्रो सी भी वो नहीं अब क़द्र कर पाते 
थे कभी हम-बिन नहीं जो सब्र कर पाते।
नहीं थी बादशाहत बिन-हमारे बज़्म में उनके
ग़लत-फ़हमी नहीं के कभी वे कुफ़्र कर पाते।

तख़य्युल में तग़ाफ़ुल है हकीकत तो है ख़स्ताहाल 
दिल-ए-कद्र-ए-सुखन के नहीं वो अब्र रह पाते। 

बेकद्रो सी भी वो नहीं अब क़द्र कर पाते
थे कभी हम-बिन नहीं जो सब्र कर पाते।

@प्रदीप 

Saturday, 5 July 2014

बहुत से है पहलू


बहुत से है पहलू 
इन अमानुष से मानुष की ,
है इक और ,
जो है जवानी से अस्मत के
बगावत की।
निर्भया-दामिनी-आरुषी से सुन लो ,
है दौर-ए-जहाँ अब 
अदावत की।
अदावत कि वफ़ा के यूँ 
सिलसिलें न रख ,
बेगैरत क़ैश 
औ' आशिक़ों के 
काफिले न रख।
अदावत कि इंतेहा
सबके वजूद का है।
क्या ख़ाका है बनाया 
'खुदा के खुद-फुगुं का है'।
बेटियाँ तक नहीं महफूज़ 
हैं माँ-बाप से ,
आने वाला भी,
 डर रहा है आज से।
अतीत ने कैसा 
ये सितम बरपा है ?
मौत सी आवाज़ 
आती साज़ से।
@प्रदीप

जाने किसमें संलिप्त है



जाने किसमें संलिप्त है
फिर भी,
 मन ये मेरा रिक्त है।
@प्रदीप