Saturday, 5 October 2013

तू है ही प्रदीप


इक बार मेरे अज़ीज़ दोस्त ने पूछा -
क्या हाल-ए-हुजुर  है?

मैं बोल पड़ा अफ़सोस मुझे
हाल-ए-दिल बड़ा मजबूर है. 
यूँ तो उसकी खातिर मुझमें 
प्यार भरा भरपूर है। 
फिर भी न जाने क्यूँ  …
…. अब भी मुझसे दूर है।

दोस्त कुटिल हो बोल पड़ा-
मेरे दोस्त!
कोई चाँद कहीं तो जरूर है ,
इतना उसे तभी तो गुरूर है,
खैर छोड़ तू उसका ख़याल 
क्यूँ उसमें मशगूल है।

अरे!…. 

…ना तो तुम बिन कोई चाँद है ,
ना ही तुम बिन कोई मगरूर है ,
तू है ही 'प्रदीप'
इसमें उनका क्या कुसूर है। 
-प्रदीप

Thursday, 3 October 2013

 

जब उनकी सत्ता आएगी

अब दोस्ती की ख्याल-ए-हाल बदल जाएगी
हर हाल में सूरत-ए-हाल बदल जाएगी
कहते हैं जब सत्ता ‘उनकी’ आएगी
‘इन’ तिफ्लों की पूरी चाल ढल जाएगी
क्योंकि,
हर ओर हमीं अब डटे हुए हैं
हमारे पांव इस से उस छोर तक जमे हुए हैं
हमारी आवाज़ इस रव से उस सुर तक लगे हुए हैं
हमारी सोच उस सुर से अब समर तक पहुंचे हुए हैं
क्योंकि हमने हमारे हम नहीं छीने, हमारे गम नहीं बीने
कभी भी तम नहीं कीने, कभी भी सम्म नहीं दीने
हमारी पाक शीरत है हमारी पाक सूरत है
नापाकियों को क्या पता
हमारी पाक खूं और पाक खसलत है.
-जय हिन्द