Sunday, 4 August 2013

कोशिश यही है

ना मैं तेरा संग चाहता हूँ 
ना ही तेरा संगम चाहता हूँ 
तेरे साथ हो हरदम 
ये एहसास मेरे हमदम चाहता हूँ 
तुमको आजमाने के बहाने लाख हैं लेकिन 
तुझे अब आजमाने की मेरी कोशिश नहीं है

मेरी गुस्ताखियों को यूँ अगर ना माफ़ करती 
मुझे दो लफ्ज़ कहकर तुम अगर नाशाद करती 
सामने तुम मेरे आमीन ना आदाब करती 
तो कहता मैं -"मेरे , ऐ ! हमनशीं 
तेरे अब पास आने की मेरी कोशिश नहीं है "

हँसी गुस्ताख़ थी तेरी ये कैसे मान लूँ 
आशिक़ी भी बेवज़ह थी मैं कैसे मान लूँ 
तूने हाँ कहा या ना वो कैसे जान लूँ 
जो तूने ना कहा था तभी रूख मोड़ते लेकिन 
तुझे अब छोड़ जाने की मेरी कोशिश नहीं है 

मैं मेरी उमंग चाहता हूँ
 तरंग तेरी संग चाहता हूँ 
मेरी हर कोशिशें तुम तक 
हाँ,
तुम बिन भी तेरा संग चाहता हूँ 
ज़माने को दिखाने के बहाने लाख हैं लेकिन 
तेरे अब साथ भी जी लूँ मेरी कोशिश यही है

-प्रदीप

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