जो किसी दुःख के होने पर - मेरे रोने पर,
मुझे ढाढ़स देते थे - साहस देते थे,
वो भी छूट गए न जाने कहाँ ?
इसका दुःख भी हुआ करता था,
मैं इसको भी सहा करता था,
और ग़फ़लत में रहा करता था,
कि कभी-न-कभी तो ये होना है,
''फिर मिलेंगें'' तो फिर क्यूँ रोना है ?
पर देखो ढाढ़स को भी साहस नहीं ,
यकीं को भी राहत नहीं ,
मैं निरा आदमी - और कोई नहीं।
वो अश्क़ - जो हर बार बहते थे ,
बेवज़ह जारोकतार रहते थे ,
वो भी छूट गए - जाने क्यूँ रूठ गए ,
अब भी उनपे कोई अख़्तियार नहीं ,
देखो मुझे, मैं निरा आदमी - कोई मेरा यार नहीं।
जो राहे-मंजिल थी - मुड़ गयी ,
मैं अवाक्-हताश, भाव-भंगिमा तक उड़ गयी ,
अब तो कुछ भी नही मेरे पास,
न मेरे दोस्त, न अपने, न आँशू,
ना मेरी भाव-भंगिमा, न मेरा मैं.
''मगर दिल ?''
- अरे!
सारी फ़साद यही है।